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कृषि- कानून : एक निरपेक्ष विश्लेषण

हाल ही में संसद द्वारा पारित कृषि अधिनियम 2020 के प्रावधानों को लेकर देशभर में एक बहस छिड़ गई है; पंजाब, हरियाणा समेत देश के विभिन्न क्षेत्रों के किसान इनका विरोध कर रहे हैं।

क्या यह विरोध आंदोलन प्रायोजित हैं? अथवा इन के माध्यम से सरकार कृषि का निजीकरण थोपना चाहती है? दोनों ही प्रश्न एक दूसरे के सामने खड़े हैं। आइए, एक निरपेक्ष विश्लेषण के माध्यम से इन्हें समझने का प्रयास करते हैं ।  
ये अधिनियम हैं:-

1-कृषि उपज, वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2020*: यह अधिनियम राज्य कृषि उपज विपणन कानून के तहत अधिसूचित बाजारों के बाहर अवरोध मुक्तअंतरराज्यीयऔर राज्यन्तरिक व्यापार एवं वाणिज्य को बढ़ावा देता है अर्थात कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) में कृषि उपज की बिक्री को समाप्त कर दिया गया है, जिससे किसानों को स्थानीय बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) भी मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है। यद्यपि किसानों और व्यापारियों को कृषि उपज की खरीद और बिक्री के लिए पहले से अधिक विकल्प उपलब्ध होंगे। इलेक्ट्रॉनिक -ट्रेडिंग का प्रस्ताव होने से किसान अपने कृषि -उत्पादों की ऑनलाइन बिक्री भी कर सकेंगे।

2-मूल्य आश्वासन पर किसान समझौता (अधिकार प्रदान करना और सुरक्षा) अधिनियम 2020*: इस अधिनियम में किसानों का प्रत्यक्ष रुप से विपणन से जुड़ने का प्रावधान है। जो कि अनुबंध -कृषि की ओर इशारा करता है, इसमें उपज के गुणवत्ता मानक दोनों पक्षों द्वारा तय किए जाएंगे। लेकिन देश में कृषि- पारिस्थितिक विविधता से गुणवत्ता में एकरूपता संभव हो पाएगी यही चिंता का कारण है। 
3- आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020*: इस अधिनियम में असामान्य परिस्थितियां जैसे अकाल ,युद्ध आदि में कृषि- उत्पादों की कीमतों को नियंत्रित किए जाने का प्रावधान है; इस संशोधन से न केवल किसानों के लिए अपितु निवेशकों के लिए भी सकारात्मक माहौल तैयार होगा। किंतु कीमत नियंत्रण में बागवानी उपज मे 100% वृद्धि तथा कृषि खाद्य पदार्थों में 50% कीमत वृद्धि का प्रावधान कुछ हद तक असंगत प्रतीत होता है।

 उक्त नियमों का व्यवहारिक मूल्यांकन करने के पश्चात एपीएमसी को प्रभावी बनाना, एमएसपी देकर किसान को भय मुक्त करना, असामान्य परिस्थितियों में कृषि उत्पादों की कीमत -वृद्धि को संगत करना आदि कुछ ऐसे बिंदु हैं जिन पर सरकार का पुनर्विचार विचार करना समीचीन होगा। यदि उक्त अधिनियमों की संवैधानिक पड़ताल की जाए तो ज्ञात होता है कि संविधान में कृषि को राज्य सूची के विषय के रूप में संदर्भित किया गया है; किंतु समवर्ती सूची की प्रविष्टि 33 के प्रावधानों के अनुसार केंद्र सरकार कृषि उत्पादन, कृषि व्यापार, खाद्यान्न वितरण और कृषि उत्पाद संबंधी मामलों पर कानून बना सकती है । अतः उक्त कानूनों को संवैधानिक आधार पर चुनौती देना पूर्णता गलत है। हां, सहकारी- संघवाद की भावना को आघात न पहुंचे इस हेतु राज्यों को विश्वास में लेना अधिक नैतिक और संवैधानिक होता।

                                                              प्रस्तुति-कानाराम प्रजापति
                                                                       पत्रकार, नावा सिटी 
                                                                      (नागौर, राजस्थान)

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